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{{KKRachna
|रचनाकार=जाँ निसार अख़्तर
}}
[[Category:रुबाई]]
<poem>
कपड़ों को समेटे हुए उट्ठी है मगर
डरती है कहीं उनको न हो जाए ख़बर

थक कर अभी सोए हैं कहीं जाग न जाएँ
धीरे से उढ़ा रही है उनको चादर
</poem>