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"कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे<br>
लगता मुझे है, क्यों मनुष्य बच पाता नहीं<br>
और महाभारत की बात क्या? गिराये गये<br>
अभिमन्यु-वध औ' सुयोधन का वध हाय,<br>
:::"एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है,<br>::::एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है;<br>:::जनता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु,<br>::::लहू-सनी जीत मुझे दीखती अशुद्ध है;<br>:::ध्वंसजन्य सुख याकि सश्रु दुख शान्तिजन्य,<br>::::ग्यात नहीं, कौन बात नीति के विरुद्ध है;<br>:::जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य,<br>::::या महान पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है।<br><br>
"सुलभ हुआ है जो किरीट कुरुवंशियों का,<br>
अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी?<br>
विजय कराल नागिनी-सी डँसती है मुझे,<br>
:::"बालहीना माता की पुकार कभी आती, और<br>::::आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का;<br>:::आँख पड़ती है जहाँ, हाय, वहीं देखता हूँ<br>::::सेंदुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का;<br>:::बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी,<br>::::तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का;<br>:::और सोते-जागते मैं चौंक उठता हूँ, मानो<br>::::शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का।<br><br>
"जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुई,<br>
हाय, पितामह, किसी भाँति नहीं देखता हूँ<br>
ऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से मुझे,<br>
मानव को देख आँखे आप झुक जातीं, मन<br>
:::"करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा,<br>::::नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा;<br>:::पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी<br>::::कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;<br>:::जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,<br>::::छिप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा;<br>:::व्यंग से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं,<br>::::वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।"<br><br>
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