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नटवर वेष काछे स्याम / सूरदास

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|रचनाकार=सूरदास
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[[Category:पद]]
राग बिहाग
<poem>
नटवर वेष काछे स्याम।
 
पदकमल नख-इन्दु सोभा, ध्यान पूरनकाम॥
 
जानु जंघ सुघट निकाई, नाहिं रंभा तूल।
 
पीतपट काछनी मानहुं जलज-केसरि झूल॥
 
कनक-छुद्वावली पंगति नाभि कटि के मीर।
 
मनहूं हंस रसाल पंगति रही है हृद-तीर॥
 
झलक रोमावली सोभा, ग्रीव मोतिन हार।
 
मनहुं गंगा बीच जमुना चली मिलिकैं धार॥
 
बाहुदंड बिसाल तट दोउ अंग चंदन-रेनु।
 
तीर तरु बनमाल की छबि ब्रजजुवति-सुखदैनु॥
 
चिबुक पर अधरनि दसन दुति बिंब बीजु लजाइ।
 
नासिका सुक, नयन खंजन, कहत कवि सरमाइ॥
 
स्रवन कुंडल कोटि रबि-छबि, प्रकुटि काम-कोदंड।
 
सूर प्रभु हैं नीप के तर, सिर धरैं स्रीखंड॥
</poem>
सूरदास कहते हैं, कैसा सुन्दर नटवर वेश है, कदंब के नीचे आप खड़े हैं और सिर पर मोर
पंखों का मुकुट धारण किये हुए हैं।
 
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