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सदस्य वार्ता:Gopal Baghel 'Madhu'

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( मधुगीति सं. ४२९, रचना दि. १७ जुलाई २००९ )
[[कड़ी शीर्षक]]'मधु' मन विहग प्रभु व्योम महिं, धावत उड़त उतरत चढत; [[कड़ी शीर्षक]]थकि जातु कब, अकुलातु कब, हँसि जातु कब, सुधि करत कब. जानत न मैं, ताड़त न मैं, तरजत न मैं, सुलझत न मैं;सुर पातु कब, सुख आतु कब, जानत न पाबत प्रात कब.
[[कड़ी शीर्षक]]जानत न मैंकबहू चहकि, ताड़त न मैंकबहू दहकि, तरजत न मैंकबहू लुढकि, सुलझत न मैंकब प्रस्फुरत; [[कड़ी शीर्षक]]सुर पातु कबमैं सोचि न पावतु बहुत, सुख आतु कब, जानत न पाबत प्रात कबविधि कि करनि में रत रहत.
[[कड़ी शीर्षक]]कबहू चहकिना तृप्त हूँ या जगत में, कबहू दहकि, कबहू लुढकि, कब प्रस्फुरत ना सुप्त हूँ जागरण में; [[कड़ी शीर्षक]]ना लुप्त मैं सोचि न पावतु बहुतहो पारहा, विधि कि करनि में रत रहतना लिप्त अति हो पारहा.
[[कड़ी शीर्षक]]ना तृप्त हूँ या जगत में, ना सुप्त हूँ जागरण में;[[कड़ी शीर्षक]]ना लुप्त मैं हो पारहा, ना लिप्त अति हो पारहा. [[कड़ी शीर्षक]]लावण्य मेरी देह में, सब यन्त्र मेरी देह में; [[कड़ी शीर्षक]]मैं तन्त्र तेरा बन उड़त, मैं मन्त्र बन तव जग फिरत.
( मधुगीति सं. ४३४, रचना दि. १७ जुलाई २००९ )
[[कड़ी शीर्षक]]ए सखि आये जग मन भावन, भाव तरावन, भक्ति जगावन;[[कड़ी शीर्षक]]प्रीति लगावन, भीति भगावन, योग सिखावन, रीति बतावन.
[[कड़ी शीर्षक]]तुम सखि नाचो, गाओ ध्याओ, सत्संगति की बेलि बढ़ाओ;[[कड़ी शीर्षक]]उपवासों में वास कराओ, कान्हा के उर को फुरकाओ.
[[कड़ी शीर्षक]]मैं भावुक अति, प्रेम विरल रति, चाहत जावति उर अन्तर अति;[[कड़ी शीर्षक]]संतन की गति, योगिन की मति, मोहि नचावति, मन थिरकावति.
[[कड़ी शीर्षक]]सारंग नाचतु मोहि बताबतु, मैं माया विच समझि ना पावति;[[कड़ी शीर्षक]]चातक चाकतु मोर पखा सर, पीताम्बर लखि अम्वर सोहत.
[[कड़ी शीर्षक]]तू आनन्द भरी क्यों गावति, ठाड़ी रहति पलक ना झाँपति;[[कड़ी शीर्षक]]क्या देखी तू भी 'मधु' भावन, क्या रीझी तू भी लखि मोहन.
 
== मैं दीप जलाता हूँ उर में ==
मैं दीप जलाता हूँ उर में, मैं राग जगाता हूँ सुर में;
तुम शाश्वत दीप जलादो ना, तुम निर्झर सुर में गा दो ना.