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{{KKRachna
|रचनाकार=निदा फ़ाज़ली
|संग्रह=आँखों भर आकाश / निदा फ़ाज़ली
}}
<poem>
जितनी बुरी कही जाती है
उतनी बुरी नहीं है दुनिया
बच्चों के स्कूल में शायद
तुमसे मिली नहीं है दुनिया

चार घरों के एक मुहल्ले
के बाहर भी है आबादी
जैसी तुम्हें दिखाई दी है
सबकी वही नहीं है दुनिया

घर में ही मत इसे सजाओ,
इधर-उधर भी ले के जाओ
यूँ लगता है जैसे तुमसे
अब तक खुली नहीं है दुनिया

भाग रही है गेंद के पीछे
जाग रही है चाँद के नीचे
शोर भरे काले नारों से
अब तक डरी नहीं है दुनिया
</poem>