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घिन तो नहीं आती है / नागार्जुन

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|रचनाकार=नागार्जुन
}}
{{KKCatKavita‎}}<poem>पूरी स्पीड में है ट्राम<br>खाती है दचके पै दचके<br>सटता है बदन से बदन-<br>पसीने से लथपथ ।<br>छूती है निगाहों को<br>कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान<br>बेतरतीब मूँछों की थिरकन<br>सच सच बतलाओ<br>घिन तो नहीं आती है ?<br>जी तो नहीं कढता है ?<br><br>
कुली मजदूर मज़दूर हैं<br>बोझा ढोते हैं , खींचते हैं ठेला<br>धूल धुआँ भाफ से पड़ता है साबका<br>थके मांदे जहाँ तहां हो जाते हैं ढ़ेर<br>ढेरसपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन<br>आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे मैं<br>बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सट कर<br>आपस मैं उनकी बतकही<br>सच सच बतलाओ<br>जी तो नहीं कढता कढ़ता है ?<br>घिन तो नहीं आती है ?<br><br>
दूध -सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा<br>निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने<br>बैठना है पंखे के नीचे , अगले डिब्बे मैं<br>ये तो बस इसी तरह<br>लगायेंगे लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे<br>भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की<br>सच सच बतलाओ<br>अखरती तो नहीं इनकी सोहबत ?<br>जी तो नहीं कढता कुढता है ?<br>घिन तो नहीं आती है ?<br><br/poem>
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