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तन गई रीढ़ / नागार्जुन

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|रचनाकार=नागार्जुन
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<poem>
झुकी पीठ को मिला
 
किसी हथेली का स्पर्श
 
तन गई रीढ़
 
महसूस हुई कन्धों को
 
पीछे से,
 
किसी नाक की सहज उष्ण निराकुल साँसें
 
तन गई रीढ़
 
कौंधी कहीं चितवन
 
रंग गए कहीं किसी के होठ
 
निगाहों के ज़रिये जादू घुसा अन्दर
 
तन गई रीढ़
 
गूँजी कहीं खिलखिलाहट
 
टूक-टूक होकर छितराया सन्नाटा
 
भर गए कर्णकुहर
 
तन गई रीढ़
 
आगे से आया
 
अलकों के तैलाक्त परिमल का झोंका
 
रग-रग में दौड़ गई बिजली
 
तन गई रीढ़
'''रचनाकाल : 1957 में रचित
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