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Kavita Kosh से
एक के नहीं,
दो के नहीं,
लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श स्पर्श की गरिमा:
एक के नहीं,
दो के नहीं,
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!
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