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Kavita Kosh से
|रचनाकार=नागार्जुन
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<Poem>
सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह
पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात
वह फटी–फटी आँखों से
टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात
कोई भी सामने से आए–जाए
सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता
पथराई नज़रों से वह यों ही देखता रहेगा
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात
सत्य को लकवा मार गया है<br>वह लंबे काठ की गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह<br>पड़ा रहता बेकार हो गई है सारा दिन, सारी रात<br>वह फटी–फटी आँखों से<br>सोचना बंदटुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात<br>समझना बंदकोई भी सामने से आए–जाए<br>याद करना बंदसत्य याद रखना बंददिमाग की सूनी निगाहों रगों में जरा ज़रा भी फर्क हरकत नहीं होतीसत्य को लकवा मार गया हैकौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता<br>हैपथराई नज़रों से वह यों ही देखता रहेगा<br>तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता हैसारा–सारा दिन, सारी–सारी रात<br><br>ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई हैसत्य को लकवा मार गया है
वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक<br>
लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है<br><br>
जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा<br>पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है<br>जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है<br>उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है<br>लगता है, अब वह किसी काम का न रहा<br>जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा<br>लोथ की तरह, स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह! <br><br/poem>