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जनमजले / राजीव रंजन प्रसाद

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<poem>ज़िन्दगी ने बेहद खामोशी से कहा
नहीं, तुम्हें पूरा हक था कि मेरे स्वप्न देख सको,
लेकिन मैं पंछी हूँ, नदी हूँ और हवा हूँ
मैंने अपनी हथेली बढ़ा कर
चाँद छू लेना चाहा,
आसमान फुनगी पर जा बैठा और हँस कर बोला..
फ़िर कोशिश कर जनमजले

२८.०५.१९९७</poem>
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