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बेला महका / धर्मवीर भारती

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|रचनाकार=धर्मवीर भारती
}} <poem>फिर,
बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका!
फिर पंखुरियों, कमसिन परियों
वाली अल्हड़ तरुणाई,
पकड़ किरन की ड़ोर, गुलाबों के हिंडोर पर लहरायी
जैसे अनचित्ते चुम्बन से
लचक गयी हो अँगडाई,
डोल रहा साँसों में
कोई इन्द्रधनुष बहका बहका!
बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका!

हाट बाट में, नगर डगर में
भूले भटके भरमाये,
फूलों के रूठे बादल फिर बाँहों में वापस आये
साँस साँस में उलझी कोई
नागिन सौ सौ बल खाये
ज्यौं कोई संगीत पास
आ आ कर दूर चला जाए
बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा मन लहराये!

नील गगन में उड़ते घन में
भीग गया हो ज्यों खंजन
आज न बस में, विह्वल रस में, कुछ एसा बेकाबू मन,
क्या जादू कर गया नया
किस शहजादी का भोलापन
किसी फरिश्ते ने फिर
मेरे दर पर आज दिया फेरा
बहुत दिनों के बाद खिला बेला, महका आँगन मेरा!

आज हवाओं नाचो, गाओ
बाँध सितारों के नूपुर,
चाँद ज़रा घूँघट सरकाओ, लगा न देना कहीं नज़र!
इस दुनिया में आज कौन
मुझसे बढ कर है किस्मतवर
फूलों, राह न रोको! तुम
क्या जानो जी कितने दिन पर
हरी बाँसुरी को आयी है मोहन के होठों की याद!
बहुत दिनों के बाद
फिर, बहुत दिनों के बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका!</poem>
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