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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजीव रंजन प्रसाद |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}<poem>'''पहाड़ -१''' …
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{{KKRachna
|रचनाकार=राजीव रंजन प्रसाद
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}<poem>'''पहाड़ -१'''

पहाड़ों के आगे
बैठा हुआ मैं सोचता हूँ
अगर तुम्हारा गम न रहा होता
तो आज कितना बौना पाता मैं अपने आप को
और अब देखता हूँ
इतना सख़्त भी नहीं पहाड़
जितना मेरा दिल हो गया है..

'''पहाड़ -२'''

पहाड़ का सीना चीर कर
नदी समंदर हो गयी
अपना अस्तित्व खो गयी
पहाड़ की आँख भी आसमान ठहरा है
और जानम
मैं पहाड़ का दर्द अपने भीतर
महसूस करता हुआ पाता हूँ
जड़ हो गया हूँ..

'''पहाड़ -३'''

पहाड़ से टकरा कर
लौट आता है तुम्हारा नाम
तुम से टकरा कर
लौट-लौट आती है मेरी धड़कन
कितनी कठोरता जानम कि पर्बत हो गयी हो..

'''पहाड़ -४'''

तुम न पत्थर पूजे से मिले
न पहाड़
लेकिन मेरी आस्था जीती है
तुम हाथ की लकीरों में नहीं थे..

'''पहाड़ -५'''

रात बहुत बारिश हुई
पहाड़ गिर पड़ा नदी की राह में
एक झील बन गयी है
बरसात नहीं थमती है
जानम क्या नदी ठहर जायेगी
या ढह जायेगा बाँध
और शेष कुछ भी न रहेगा?..

'''पहाड़ -६'''

पर्वत से जीना सीखा है
गम को निर्झर कर देता हूँ
रीता हूँ दरिया कहता है
कल फ़कीर गाता जाता था
इस पहाड़ में दिल रहता है..

१०.११.२०००
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