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व्यर्थ नहीं हूँ मैं / कविता किरण
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13:53, 31 अक्टूबर 2009
तभी तो तुम कर पाते हो गर्व अपने पुरूष होने पर
मैं झुकती हूँ!
तभी तो
ऊंचा
ऊँचा
उठ पाता है
तुम्हारे अंहकार का आकाश।
अनिल जनविजय
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