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एक विज्ञापन / अजित कुमार

No change in size, 14:21, 1 नवम्बर 2009
|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
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सोचता हूँ-
 
गीत लिखने से कहीं अच्छा,
 
जुटा लूँ हर तरफ़ से क़ीमती सामान ।
 
और जितने उपकरण हैं गीत के-
 
मन को भुलाने, और धन की, और
 
जन की फ़िक्र से पीछा छुड़ाने के-
 
युवतियाँ, प्रेम, आँसू , विरह, पीड़ा,
 
सेक्स की अवरुद्ध क्रीड़ा,
 
सुप्त मन में गड़ी फाँसें,
 
गरम या ठंडी उसाँसें और
 
सपने हार के या जीत के-
 
सबको क़रीने से सजाऊँ,
 
ढोल ज़ोरों से शहर भर में बजाऊँ,
 
छाप कर परचे-
 
गली-सड़कों-घरों में पहुँच जाऊँ-
 
"प्रेमियो, साहित्यिको, विक्षिप्त कवियो ।
 
तम-भरे संसार के अनगिनत रवियो ।
 
मुफ़्त ले जाओ यहाँ से माल खुदरा,
 
कुछ दिनों से गीत का बाज़ार उतरा
 
है, इसीसे भूल सारा मान या सम्मान
 
सोचा है कि अब इस तरफ़ दूँगा ध्यान-
 
मैंने खोल ली है शहर में साहित्य के परचून की दूकान,
 
जिसमें 'मसि' तथा 'कागद', 'कलम' से ले
 
'विचारों' 'भावनाओं', 'कल्पनाओं' तक
 
मिलेंगे हर किसिम' हर ढंग के सामान ।
 
आए हैं समन्दर पार से 'लेटेस्ट माँडल',
 
काव्य-बाला को सजाने के लिए
 
रंगीन आभूषन तथा परिधान ।
 
आएँ आप, देखें और परखें,
 
करेंगे मुझ पर बड़ा उपकार ।
 
-अजितकुमार ।"
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