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|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
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व्याकुलता अब भी वैसी ही है ।
अन्तर बस इतना है—
::पहले वह होती थी रोज़-रोज़,
::तब हर अन्यायी को खोज-खोज
::लड़ने को मुट्ठी तन जाती थी ।
और आज—
::सुख-सुविधा की चिन्ता, कामकाज
::में फँसकर
::चार-छै महीनों में एक बार
::होती है ।
किन्तु आज भी है वह दुर्निवार ।
अब भी मेरी आत्मा वैसे ही रोती है ।
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