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उजड़े मेले में / अजित कुमार

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|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
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कुछ तो वह अजब तमाशा था
 
कुछ हम भी थे ऐसे …
 
रह गये देखते, और
 
जान ही सके नहीं-
 
कब गुज़र गया सब
 
खत्म हुआ कैसे ॥
 
जब चेत हुआ तो क्या देखा
 
::कुछ बिखरे-बिखराये कागज़
 
::कुछ टूटे-फूटे पात्र पड़े ।
 
::सारा मेला है उजड़ चुका,
 
::बस, एक अकेले हमीं खड़े ।
 
::जिस जगह बड़ा सा घेरा था,
 
::केवल कुछ गड्ढे शेष रहे ।
 
::सुलगती लकड़ियां, राख और
 
::मैले पन्ने, उतरे छिलके :
 
जो यही पूछते-से लगत-
 
::‘रे, कौन यहां पर आया था ?
 
::यह किसका रैन-बसेरा था ?
 
यह उजड़ा मेला
 
::उखड़े हुए नशे जैसा,
 
::सारे मोहक आकारों के सौ-सौ टुकड़े ।
 
::सब आकर्षक ध्वनियां- अब केवल ‘भाँय-भाँय’ ।
 
::रंगों के बदले-फीके,मटमैले धब्बे ।
 
वह एक तमाशा था …
 
लेकिन
 
::उलझी-सुलझी रस्सियां,
 
::बांस गांठोंवाले …
 
::कुम्हलाये हुए फूल-पत्ते…
 
::सारे का सारा आसपास
 
::जो दिखता है बेहद उदास :
 
::यह भी तो एक तमाशा है ।
 
उजड़े-बिखरे, टूटे-फूटे
 
की भी तो कोई भाषा है।
 
::कीचड़ से भरी तलैया का गँदला पानी
 
चुपके-चुपके कहता-सा है—
 
‘अधजली घास हरियाएगी…
 
गँदले पानी को थपकी देती हुई हवा
 
कुछ राख उड़ाकर ले जाती ,
 
कुछ धूल उड़ाकर ले आती:
 
अब
 
तिरछे-सीधे चरण-चिन्ह,
 
सब
 
गहरे,ठहरे, बड़े चिन्ह
 
धीरे-धीरे मिट जाएँगे ।
 
लगने दो मेला और कहीं ।
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