भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ग्रीनरूम / अजित कुमार

11 bytes removed, 15:24, 1 नवम्बर 2009
|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
}}
{{KKCatKavita}}<poem>
जहाँ पर इन्द्रधनुष पहले-पहले बनते,
 
जहाँ पर मेघ परस्पर परामर्श करते कि
 
कैसा रूप धरें जो त्रिभुवन-मोहन हो ।
 
:::जहाँ से दृश्य नए खुलते—
 
वहाँ तक जाकर मैं रूक गया ।
 
याद अब भी मुझको वह रात,
 
बहुत दिन पहले की यह बात…
 
:::एक नाटक होते देखा :
 
:::और अभिनय की हर रेखा
 
:::मुझे रँगती-सी चली गई ।
 
:::बहुत उद्विग्न हुआ मैं, और,
 
:::--चलूँ अब किसी दूसरे ठौर—
 
:::सोचकर, उठा और चल दिया ।
 
अचानक वहीं पार्श्व में दिखा
 
द्वार, जिसपर ‘सज्जागृह’ लिखा ।
 
झाँककर मैं भी देखूँ इसे ?-
 
ज्ञात था किसे ।
 
कि
 
श्री की होगी ऐसी राह ।
 
रँगे जाते थे चेहरे ।
 
आह ।
 
जान मैं गया,
 
जान मैं गया कि:
 
मुद्रा, अंग-भंगिमा,
 
गति, लय, भावावेग ,
 
हास उन्मुक्त, और उद्वेग—
 
सभी की रचना का यह केन्द्र ।
 
सभी ‘अभिनय’ का पहला स्रोत ।
 
तभी से कुछ ऐसा हो गया
 
कि हर सज्जागृह के
 
दरवाज़े से ही
 
मैं वापस आ गया ।
 
जहां पर रंग और आकार पुष्प पाते,
 
जहां से स्वप्न सुहाने पलकों पर आते,
 
वहां तक जाकर मैं थम गया ।
 
नहीं सोचा- ‘रहस्य को करूं अनावृत, नग्न ।‘
 
नहीं चाहा- ‘सुन्दरता को यों कर दूं भग्न ।‘
 
और
 
इस उलझी-सुलझी यात्रा का
 
था जहां आखिरी ठौर :
 
वहां तक पहुंचा-
 
मुड़ आया ।
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,393
edits