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|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
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'''कलाकृति
 
चित्रों में अंकित
 
पथ,कानन,
 
सरिताएं, सागर, भू, नभ, घन
 
लिपि में बँधे हुए,
 
शब्दों में वर्णित
 
मैंने देखे ।
 
मुझे दिखा, मानो
 
नदियां यों तो बहती हैं
 
मैदानों में, दूर घाटियों में,
 
पर उनकी आत्मा रहतीहै
 
कागज़ पर अंकित चित्रों में ।
 
मुझे लगा, मानो
 
दो क्षण रहनेवाली संध्या
 
बेशक ‘थी’
 
और कभी आगे ‘होगी’,
 
किन्तु अमरता और मधुरिमा उसकी ?
 
--बस कविताओं में ।
 
: “दिवसावसान का समय
 
मेघमय आसमान से उत्तर रही है
 
संध्या-सुंन्दरी परी-सी… “
 
इसीलिए वे हरे, लाल,नीले रंगों से
 
चित्रफलक पर रँगे हुए
 
वन,उत्पल, या आकाश
 
मुझे विह्लल कर देते थे ।
 
बन्धु । वे सरल-तरल-मंजुल शैली में कहे गए
 
उपवन, निर्झर, वातास
 
मुझे चंचल कर देते थे ।
 
इन सबमें रम जाता था
 
मैं ।
 
इसीलिए तो
 
जहाँ-जहाँ भी दीख पड़ी रचना—
 
कृति, अनुकृति—
 
वहाँ-वहाँ थम जाता था
 
मैं ।
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