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सोन-मछली / अज्ञेय

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|संग्रह=अरी ओ करुणा प्रभामय / अज्ञेय
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हम निहारते रूप
 
काँच के पीछे
 
हाँप रही है, मछली ।
 
 
रूप तृषा भी
 
(और काँच के पीछे)
 
हे जिजीविषा ।
</poem>
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