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|संग्रह=अरी ओ करुणा प्रभामय / अज्ञेय
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न देखो लौट कर पीछे
वहाँ कुछ नहीं दीखेगा
न कुछ है देखने को
उन लकीरों के सिवा, जो राह चलते
हमारे ही चेहरों पर लिख गयीं
अनुभूति के तेज़ाब से
बड़ी लम्बी राह।<br>राह : आह, आज सँकरे मोड़ पनाह इस पर यह<br>नहीं— वास्तविक विडम्बना <br>कोई ठौर जिस पर छाँह हो। रो रही है :<br>कौन आँके मोल उस के शोध का मूल्य के भी मूल्य की जो थाह पाने एक नंगी डाकिनी <br><br>मरु-सागर उलीच रहा अकेला ? जल जहाँ है नहीं क्या वह अब्धि है ? रेत क्या उपलब्धि है ?
बड़ी लम्बी राह : आह,<br>पनाह इस पर नहीं—<br>कोई ठौर जिस पर छाँह हो।<br>कौन आँके मोल राह। जब उस के शोध का<br>ओर मूल्य के भी मूल्य थे हम, एक संवेदना की जो थाह पाने<br>डोर एक मरुबाँधती थी हमें—तुम को : और हम-सागर उलीच रहा अकेला ?<br>तुम मानते थे जल जहाँ है नहीं<br>डोरियाँ कच्ची भले हों, सूत क्योंकि क्या वह अब्धि पुनीत है ?<br>, उन से बँधे रेत क्या<br>उपलब्धि है ?<br><br>सरकार आयेंगे चले