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असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 4

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|सारणी=असाध्य वीणा / अज्ञेय
}}
 
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]
<poem>
"मुझे स्मरण है
उझक क्षितिज से
किरण भोर की पहली
जब तकती है ओस-बूँद को
उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।
और दुपहरी में जब
घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं
मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार --
उस लम्बे विलमे क्षण का तन्द्रालस ठहराव।
और साँझ को
जब तारों की तरल कँपकँपी
"मुझे स्मरण है<br>उझक क्षितिज से<br>किरण भोर की पहली<br>जब तकती है ओस-बूँद को<br>उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।<br>और दुपहरी में जब<br>घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं<br>मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार --<br>उस लम्बे विलमे क्षण का तन्द्रालस ठहराव।<br>और साँझ को<br>जब तारों की तरल कँपकँपी<br><br> स्पर्शहीन झरती है --<br>मानो नभ में तरल नयन ठिठकी<br>नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशिर्वाद --<br>उस सन्धि-निमिष की पुलकन लीयमान।<br><br> "मुझे स्मरण है<br>और चित्र प्रत्येक<br>स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझको।<br>सुनता हूँ मैं<br>पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझको मुझसे सोख --<br>वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ। ...<br>मुझे स्मरण है --<br>पर मुझको मैं भूल गया हूँ :<br>सुनता हूँ मैं --<br>पर मैं मुझसे परे, शब्द में लीयमान।<br><br>
"मैं नहींमुझे स्मरण है और चित्र प्रत्येक स्तब्ध, नहीं ! मैं कहीं नहीं !<br>विजड़ित करता है मुझको। ओ रे तरु ! ओ वन !<br>सुनता हूँ मैं पर हर स्वर-सँभार !<br>नादकम्पन लेता है मुझको मुझसे सोख -मय संसृति !<br>ओ रस-प्लावन !<br>मुझे क्षमा कर वायु-सा नाद- भूल अकिंचनता को मेरी --<br>भरा मैं उड़ जाता हूँ। ... मुझे ओट दे स्मरण है -- ढँक ले -- छा ले --<br>ओ शरण्य !<br>पर मुझको मैं भूल गया हूँ : मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वरसुनता हूँ मैं --सागर का ज्वार डुबा ले !<br>पर मैं मुझसे परे, मुझे भला,<br>तू उतर बीन के तारों शब्द में<br>अपने से गा<br>अपने को गा --<br>अपने खग-कुल को मुखरित कर<br><br>लीयमान।
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]<br><br>"मैं नहीं, नहीं ! मैं कहीं नहीं ! ओ रे तरु ! ओ वन ! ओ स्वर-सँभार ! नाद-मय संसृति ! ओ रस-प्लावन ! मुझे क्षमा कर -- भूल अकिंचनता को मेरी -- मुझे ओट दे -- ढँक ले -- छा ले -- ओ शरण्य ! मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले ! आ, मुझे भला, तू उतर बीन के तारों में अपने से गा अपने को गा -- अपने खग-कुल को मुखरित कर
अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध,<br>अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर<br>अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,<br>अपनी प्रज्ञा को वाणी दे !<br>तू गा, तू गा --<br>तू सन्निधि पा -- तू खो<br>तू आ -- तू हो -- तू गा ! तू गा !"<br><br>[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]
राजा आगे<br>अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध, समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-<br>कुसुमन की लय पर काँपी थी उँगलियाँ।<br>अलस अँगड़ाई ले अपने जीवन-संचय को कर मानो जाग उठी थी वीणा :<br>छंदयुक्त, किलक उठे थे स्वरअपनी प्रज्ञा को वाणी दे ! तू गा, तू गा --शिशु।<br>नीरव पद रखता जालिक मायावी<br>तू सन्निधि पा -- तू खो सधे करों से धीरे धीरे धीरे<br>डाल रहा था जाल हेम तारोंतू आ -- तू हो --का ।<br><br>तू गा ! तू गा !"
सहसा वीणा झनझना उठी --<br>राजा आगे समाधिस्थ संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वालाका हाथ उठा था -सी झलक गयी --<br>रोमांच एक बिजलीकाँपी थी उँगलियाँ। अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा : किलक उठे थे स्वर-सा सबके तन में दौड़ गया ।<br>शिशु। अवतरित हुआ संगीत<br>नीरव पद रखता जालिक मायावी स्वयम्भू<br>सधे करों से धीरे धीरे धीरे जिसमें सीत है अखंड<br>ब्रह्मा डाल रहा था जाल हेम तारों-का मौन<br>अशेष प्रभामय <br><br>
डूब गये सब सहसा वीणा झनझना उठी -- संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी -- रोमांच एक साथ बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया <br>सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे अवतरित हुआ संगीत स्वयम्भू जिसमें सीत है अखंड ब्रह्मा का मौन अशेष प्रभामय <br><br>
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]<br><br>डूब गये सब एक साथ । सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे ।
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]
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</poem>
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