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पंचमुख गुड़हल / अज्ञेय

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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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शान्त
 
मेरे सँझाये कमरे,
 
शान्त
 
मेर थके-हारे दिल।
 
मेरी अगरबत्ती के धुएँ के
 
बलखाते डोरे,
 
लाल
 
अंगारे से डह-डह इस
 
पंचमुख गुड़हल के फूल को
 
बांधते रहो नीरव—
 
:जब तक बांधते रहो।
 
साँझ के सन्नाटे में मैं
 
सका तो एक धुन
 
निःशब्द गाऊँगा।
 
 
फिर अभी तो वह आएगी:
 
रागों की एक आग एक शतजिह्व
 
लहलह सब पर छा जाएगी।
 
दिल, साँझ, शम, कमरा, क्लान्ति
 
एक ही हिलोर
 
डोरे तोड़ सभी
 
अपनी ही लय में बहाएगी:
 
फूल मुक्त,
 
धरा बंध जायेगी।
 
अपने निवेदना का धुआँ बन
 
अपनी अगरबत्ती-सा
 
मैं चुक जाऊँगा।
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