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{{KKRachna
|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
|अनुवादक=|संग्रह= गुले-नग़मा/ फ़िराक़ गोरखपुरी
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हमआहंगी में भी इक चासनी है इख़्तलाफ़ों की
मेरी बातें बउनवाने-दिगर वो मान लेते हैं।
तुझे घाटा ना होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त मेंहम अपने सर तेरा ऎ दोस्त हर नुक़सान लेते हैं हमारी हर नजर तुझसे नयी सौगन्ध खाती हैतो तेरी हर नजर से हम नया पैगाम लेते हैं रफ़ीक़-ए-ज़िन्दगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आखिर हैतेरा ऎ मौत! हम ये दूसरा एअहसान लेते हैं ज़माना वारदात-ए-क़्ल्ब सुनने को तरसता हैइसी से तो सर आँखों पर मेरा दीवान लेते हैं 'फ़िराक' अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर<br>कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं<br><br/poem>