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विनय / सियाराम शरण गुप्त

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{{KKCatKavita‎}}<poem>है यह विनय वारंवार
दीनता वश हम न जावें दूसरों के द्वार।
यदि किसी से इष्ट हो साहाय्य या उपकार।
तो तुम्ही से हे दयामय, देव, जगदाधार।
यदि कभी सहना पड़े दासत्व का गुरुभार।
तो तुम्हारा ही हमें हो दास्य अंगीकार।
यदि कभी हम पर करो तुम क्रोध का व्यवहार।
भक्तिपूर्वक तो सदा वह हो हमें स्वीकार।
यदि कभी हमको मिले आनन्द हर्ष अपार।
भूल कर भी तो प्रभो! हम तुम्हें दे न विसार।
</poem>
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