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होने का सागर / अज्ञेय

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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
}}
{{KKCatKavita}}<poem>सागर जो गाता है <br> वह अर्थ से परे है— <br> वह तो अर्थ को टेर रहा है। <br> <br>
हमारा ज्ञान जहाँ तक जाता है, <br> जो अर्थ हमें बहलाता (कि सहलाता) है <br> वह सागर में नहीं, <br> हमारी मछली में है <br> जिसे सभी दिशा में <br> सागर घेर रहा है। <br> <br>
आह, यह होने का अन्तहीन, अर्थहीन सागर <br> जो देता है सीमाहीन अवकाश <br> जानने की हमारी गति को: <br> आह यह जीवित की लघु विद्युद्-द्रुत सोन-मछली <br> केवल मात्र जिस की बलखाती गति से <br> हम सागर को नापते क्या, पहचानते भी हैं! <br/poem>
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