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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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फिर इधर इस काँच के पीछे कोई दूसरा आएगा, <br> पैसे खनकाएगा, <br> रुपए की परचियाँ खिसलाएगा, <br> बिना किसी जल्दी के समेटेगा, जेब में सरकाएगा <br> दाम देगा नहीं, वसूलेगा <br> और फिर हम सब को—एक-एक को—एक साथ <br> और बड़े इत्मीनान से धीरे-धीरे खाएगा <br> खाता चला जाएगा, <br> वैसी ही बे-झपक आँखों से ताकता हुआ <br> जैसी से ताकती हुई ये मछलियाँ <br> स्वयं खाई जाती हैं। <br><br>
ज़िन्दगी के रेश्त्राँ में यही आपसदारी है <br> <!--- मूल किताब में रेश्त्राँ लिखा है, रेस्त्राँ नहीं--->रिश्ता-नाता है— <br>
कि कौन किस को खाता है।
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