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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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झील की कोखों से जहाँ झाँकते थे <br> धूप से सोना-मढ़े भाप के छल्ले <br> वहाँ अब मंडराता है घना नीला कुहरा <br> मनहूस, बाँझ सन्नाटे को करता और गहरा।... <br> <br>
अनदेखे लाद ले गया है अपनी झोली में <br> काल का गली छानता हुआ कबाड़ी <br> न जाने कितने दिन, कितने क्षण, <br> कितनी अन्तहीन अनकही और अधूरी कही बातें, <br> कितने संकेत, कितने स्पर्श-हर्ष, <br> उमंगें—अकुलाहटें; <br> सिहरनों में घुलती और साँसों से नापी हुई रातें <br> ठिठकनें, आहटें; <br> कितने कल्पना की आग में रूपायित हुए सपने, <br> कितना माल, जो पड़ा था तो मानो रद्दी था, <br> पर अब उस के हाथ चला गया तो सन्देह होता है <br> कहीं हम ठगे तो नहीं गए? <br> <br>
क्योंकि नहीं तो कहाँ है वह प्यार, कहाँ हो तुम, ओ मेरे <br> :::::अपने, <br> कहाँ है वे हम, जिनका निरन्तर अपने को भूलना ही <br> जीना और होना था— <br> जहाँ अपने को राख-सा फूँक कर उड़ाते जाना <br> दोनों को पाना था? <br> <br>
(भर ली गई हैं पुआलें <br> खलिहानों में: <br> तोड़ लिए गए सब सेब: सूनी हैं डालें:) <br> रूपायित सपने तो गए भी (आख़िर सपने थे, <br> हम गए जाग), पर <br> क्या हुई वह रूपकल्पी आग? <br> (उतर चुके अंगूर—गुच्छे के गुच्छे, <br> हो चुके पेराई के मेले। <br> काली पड़ गईं क़तारें: लाल होकर सूख भी चली बेलें।) <br> <br>
रूपकल्पी आग! <br> (तोड़ लिए गए हैं सब सेब: सूनी हैं डालें...) <br> आधी रात राख में कभी सुलग जाती हैं केवल सपने की <br> :::::परछाइयाँ। <br> (खलिहानों में भर ली गई हैं पुआलें...) <br> <br>
पड़ाव: थके पैर: क्या भूख? नहीं। शीत? नहीं। <br> तो कुछ तो कहो? कुछ नहीं, आँखों की दीठ मुझे घेरे रहे, <br> कुछ और नहीं चाहिए—उसी में गरमाई है, <br> तृप्ति है, सहलाहट है, उनींदा है जो नींद से भी मीठा है... <br> दूर-दूर, छूईमुई-से, पर कितने तुम मेरे रहे... <br> <br>
भोर: चोरी से नहीं, अनजाने, अचानक <br> मैंने तुम्हें झरने पर देखा। <br> आह! ऐसे धुलते हैं तार सोने के, <br> ऐसे मंजता है कुन्दन! <br> ऐसे, मानो ओस के प्रभा-मण्डल से घिरा हुआ <br> पार की धूप में चमक उठता है <br> सवेरे का फूल! <br> अरे ओ ढीठ पवन, मत कँपा इन वल्ली को <br> नई धूप में विकसने दे— <br> छोटी-छोटी लहरों को <br> मूंगे की-सी झाँई देते <br> पाँवों की छाँव में मेरा मन बसने दे। <br> (झील की कोखों से जहाँ झाँकते थे <br> भाप के सोना-मढ़े छल्ले <br> वहाँ अब मंडराता है घना नीला कुहरा...) <br> <br>
हिम-शिखर की तलहटी में <br> निर्जन झुरमुट, <br> बीच में तिरछी किरणों-बुना आसन: <br> आस-पास साँस रोके-सा झुटपुट। <br> एक लय है ऊपर, पत्तियों के मर्मर की, <br> एक लय भीतर, घनी, तीव्रतर साँसों की— <br> कैसा है यह संगीत जो पहले कभी सुना नहीं! <br> सुनो! नहीं अभी नहीं—सुना तो <br> सब दूसरा हो जाएगा! <br> तो दूसरा ही हो—वरंच दूसरा तो हो चुका!— <br> क्या अभी वही हो तुम? क्या वही हूँ—क्या हूँ भी मैं? <br> यों—क्या जाने क्या हमसे बना, क्या बना नहीं; <br> किरणों का आसन सिमट गया, <br> सिहरन बची रही; <br> पीछे झुटपुटे ने झुरमुट से <br> न जाने क्या कही या नहीं कही! <br> पर हिम-शिखर हमारे साथ आया <br> बल्कि चांदनी का एक मौर लाया <br> जो उसने तुम्हारे गले डाल दिया <br> और जिसे मैं ताका किया, ताका किया <br> भोर तक: <br> जिसे छूने बढ़ी मेरी उंगलियाँ तो सकुचीं, <br> फिर रोमावली के साथ बह आईं <br> भुजा से तुम्हारी उंगलियों के छोर तक— <br> फिर गुंथे हाथ <br> और गूंजा संगीत वही <br> फिर एक बार— <br> दुर्निवार... <br> (काली पड़ गईं क़तारें: लाल हो कर सूख भी चलीं बेलें। <br> उतर चुके अंगूर—गुच्छे के गुच्छे— <br> हो चुके पेराई के मेले।) <br> <br>
आग के कितने रूप <br> बसे हैं मेरे मन में! <br> एक आग जो पकाती है <br> एक जो मीठा घाम है, <br> एक जो आँखों में सुलगती है <br> एक जो झुलसाती है <br> एक जो साक्षी है <br> एक जो सहलाती है, अदृश्य बल देती है, जो न हो तो हम <br> :::::रीते हैं, <br> एक जो उलटे धौंकनी को चलाती है, जिसे हम हर साँस <br> ::::के साथ पीते हैं, <br> एक जिसकी सोंधी खुदबुद बताती है <br> कि सपने जहाँ हैं, हैं, <br> पर एक धरती है जिस पर हम टिके हैं, चलते हैं, जीते हैं... <br> <br>
आग के कितने-कितने रूप! <br> ये सभी हमने जलाई थीं <br> साथ-साथ, <br> सब में हम जले थे, <br> साथ-साथ, <br> सोचा था कि ऐसा होगा, <br> चाहा था कि ऐसा हो, <br> —पर क्या चाहा था? <br> कि एक मीठी सिगड़ी हो हमारे हाथों में <br> या कि एक जलता टीका हो हमारे माथों पर? <br> (झील की कोखों में जमता है घना नीला कुहरा <br> मनहूस, बाँझ सन्नाटे को करता और गहरा...) <br> हमारे मिले हाथों के सम्पुट में <br> हम ने देखा जीवन को पनपते, <br> कन्धे से कन्धा जोड़, हाथ गहे <br> हमने सहा <br> ओठों पर अन्तिम साँसों को कँपते— <br> आग का साक्ष्य? कितने साक्ष्य! <br> हमारा निजी अनुभव का साक्ष्य <br> जीवन-मरण का! <br> <br>
(उतर चुके अंगूर—गुच्छे के गुच्छे, <br> तोड़ लिए गए हैं सब सेब, सूनी हैं डालें... <br> हो चुके पहली पेराई के मेले <br> लाल होकर काली भी पड़ गई बग़ीचों की क़तारें: <br> उतर चुके अंगूर: सूख गईं बेलें।) <br> काली पड़ गई आग। धुंधली पड़ गई साख <br> उस की और हमारी! <br> थक जाती है याद भी ढोते, उड़ाते, परत पर परत राख <br> जब तक कि मिले कहीं सुलगती चिनगारी! <br> <br>
झील की कोख से उमड़ कर फैल जाता है कुहरा <br> मनहूस, बाँझ सन्नाटा होता जाता है और, और गहरा! <br> सूख चुकीं घासें, नुच चुके पेड़-पात, <br> नंगी हो चट्टानें भी धुन्ध में दुबक गईं। <br> और अब कहाँ है प्रकाश, या आकाश? <br> वही मनहूसियत उस पर भी पुत गई। <br> रात, रात, रात, रात, <br> ठिठुरन—संवत्सर के मरने की कालिमा <br> सब कुछ ढँक गई... <br/poem>