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स्वप्न / सियाराम शरण गुप्त

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{{KKCatKavita‎}}<poem>हो सकती भव-बीच नहीं क्या कोई नूतन बात?
आ जा आज यहाँ फिर से तू सम्मित पुलकित गात।
होती रहती है कितनी ही बातें नव नव नित्य;
यह विषाद हो जाय आज यदि किसी स्वप्न का कृत्य!

मन्द मन्द गति से आकर तू आँखें सी दे खोल;
फिर से तेरे मंजु मिलन में उठे हर्ष किल्लोल।
"अरे, यहाँ कैसे बैठे तुम, करते हो क्या खूब!"
कुछ न सुनूँ जा लिपटूँ तुझसे हर्षोदधि में डूब।

(हाय, कुहुकमयि क्रूर कल्पना!) यह है छलना व्यर्थ;
अश्रु गिराना मात्र रहा है अब तो तेरे अर्थ।
उनमें से भी तुझ तक कोई पहुँच न सकते आह!
जाने कितने गिरि वन सागर रोक रहे हैं राह?</poem>
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