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स़बूत / अरुण कमल

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|संग्रह = सबूत / अरुण कमल
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वे बहुत ख़ुश हैं
 
हँस रहे हैं बात-बात पर
 
दिन ब दिन जवान हो रहे हैं
 
लूट का माल तो उनके भी हाथ लगा
 
पर उनके हाथ पर एक बूंद ख़ून नहीं
 
उन्हें सब पता है-- कौन लोग दरवाज़ा तोड़ कर
 
देसी बन्दूक लिए घर में घुसे
 
मर्दों को खाट से बांधा
 
औरतों की इज़्ज़त उतारी
 
नाक की नथ उतारी
 
कंगन उतारने में ज़ोर पड़ा तो छ्प से
 
::::छाँट दी हथेली--
 
उन्होंने वो कंगन ख़ुद अपनी बहन को
 
::::रात में पहनाया
 
कहीं एक बूंद ख़ून नहीं
 
जितना पवित्र पहले थे
 
उतने ही पवित्र हैं आज भी, निष्कलुष
 
उनके ख़िलाफ़ कुछ भी सबूत नहीं
 
जो निर्दोष हैं वे दंग हैं हैरत से चुप हैं
 
शक है उन पर जो निर्दोष हैं क्योंकि वे चुप हैं
 
::::::क्योंकि वे चुप हैं ।
</poem>
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