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|संग्रह=धरती की सतह पर / अदम गोंडवी
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि इक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी´आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
 
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
 
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
`"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने´सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर `"माल वो चोरी का तूने क्या किया´किया"`"कैसी चोरी माल कैसा´ कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
`"मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दोआग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो´दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे
´´ "कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहींहुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं ´´"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
`"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल´हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को