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|रचनाकार=अशोक वाजपेयी
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खरगोश अँधेरे में
 
धीरे-धीरे कुतर रहे हैं पृथ्वी ।
 
पृथ्वी को ढोकर
धीरे-धीरे ले जा रही हैं चींटियाँ ।
 
अपने डंक पर साधे हुए पृथ्वी को
 
आगे बढ़ते जा रहे हैं बिच्छू ।
 
एक अधपके अमरूद की तरह
 
तोड़कर पृथ्वी को
 
हाथ में लिये है
 
मेरी बेटी ।
 
अँधेरे और उजाले में
 
सदियों से
 
अपना ठौर खोज रही है पृथ्वी
 
(रचनाकालः1985)
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