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|रचनाकार=असद ज़ैदी
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<poem>
कॉफ़ी होम में घुसते ही मुझे दिखाई दिया
हेमंत कोई तीस साल बाद- - वही चेहरा वही घुँघराले बाल
समझदारी और पलायन से भरी वही
शर्मीली हँसी
कोई युवती आहिस्ता-आहिस्ता उससे
कुछ कह रही थी
ऊपर नीचे कठपुतली की तरह सर हिलाते हुए
वह कह रहा था... अच्छा अच्छा !
जी...हाँ...एकदम- -बिल्कुल
कॉफ़ी होम में घुसते ही मुझे दिखाई दिया<br>यह कम्बख़्त बिल्कुल नहीं बदलाहेमंत कोई तीस साल बाद- - वही चेहरा वही घुँघराले बाल<br>बेतकल्लुफ़ आवेग से मैं उसकी तरफ बढ़ासमझदारी उसने मुझे देखा और पलायन से भरी वही<br>नहीं भी देखाशर्मीली हँसी<br>कोई युवती आहिस्ता-आहिस्ता उससे<br>कुछ कह रही थी<br>ऊपर नीचे कठपुतली की फिर उसी तरह सर हिलाते हुए<br>वह कह रहा था... अच्छा अच्छा !<br>जी...हाँ...एकदम- -बिल्कुल<br><br>हिलाने में मशग़ूल हो गया
यह कम्बख़्त बिल्कुल नहीं बदला<br>जैसी ही मैंने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा -बेतकल्लुफ़ आवेग ‘इस शहर में कब से मैं उसकी तरफ बढ़ा<br>हो हेमंत ! ’उसने मुझे देखा और मैं जान गया यह हेमंत नहीं हैवह भी देखा<br>जान गया कि वह हेमंत नहीं हैफिर उसी तरह सर हिलाने एक बनावटी लेकिन उदार मुस्कुराहट से उसनेयह मामला रफ़ा दफ़ा कियाकॉफ़ी हाउसों में मशग़ूल हो गया<br><br>अक्सर इसी तरहमंडराता रहता है अतीतऔर घूमते रहते हैं कुछ खिसियाए हुए सेगंजे प्रेतएक शाश्वत प्यास छिपाए हुए
जैसी ही मैंने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा -<br>‘इस शहर में कब से हो हेमंत ! ’<br>मैं जान गया यह हेमंत नहीं है<br>वह भी जान गया कि वह हेमंत नहीं है<br>एक बनावटी लेकिन उदार मुस्कुराहट से उसने<br>यह मामला रफ़ा दफ़ा किया<br><br>कॉफ़ी हाउसों में अक्सर इसी तरह<br>मंडराता रहता है अतीत<br>और घूमते रहते हैं कुछ खिसियाए हुए से<br>गंजे प्रेत<br>एक शाश्वत प्यास छिपाए हुए<br><br> हेमंत-- यह कैसे हो सकता था हेमंत<br>तीस साल तीस साल तो इस नौजवान की<br>उम्र भी नहीं है गाफ़िल !<br>यह उस हेमंत का बेटा भी नहीं हो सकता<br>इतना हमशक्ल होने पर कौन<br>कमअक़्ल होगा कि <br><br>अपने बाप की नक़ल बना फिरे<br><br>तुम जो भी कोई हो -- क्या सचमुच हो ?<br>या यह भी एक दिवास्वप्न है हेमंत द्वितीय ?<br/poem>
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