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{{KKRachna
|रचनाकार=राजीव रंजन प्रसाद
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}<poem>नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?
मुट्ठी में एक तमंचा है अंकल
मैंने इससे ही कत्ल किया है!!

सुनता हूँ, गाना नये दौर का है
सागर से दरिया पहाड़ों की ओर
बहता चला है, कहता चला है
पश्चिम से सूरज निकलना तय है
बिल्ली ने अपने गले ही में घंटी
बाँधी है और नाचती है छमा-छम
चूहा नशे में वहीं झूमता है।
जंगल का भी एक कानून है
शेर जियेगा, मारेगा सांभर
फिर वो दहाड़ेगा, राजा है आखिर?
लेकिन नहीं लाज आती है आदम
जो तुम जानवर बन के कॉलर उछालो
बनाते हो जो भेड़िया अपनी पीढ़ी
अभी भी समय है, संभल लो संभालो।

बच्चे नहीं बीज पैदा करो तुम
सही खाद पानी उन्हें चाहिये फिर
पानी में जलकुम्भियाँ ही उगेंगी
नहीं तो नीम की शाख ही पर
करेला चढ़ेगा, कडुवा बकेगा
ये वो दौर है जिसमें है सोच सूखी
पैसा बहुत, आत्मा किंतु भूखी
हम बन के इक डायनासोर सारे
तरक्की के बम पर बैठे हुए हैं
जडें कट गयीं, फिर भी एठे हुए हैं
मगर फूल गुलदान में एक दिन के।
तूफान ही में उखड़ते हैं बरगद
जो बचते हैं हम उनको कहते हैं तिनके।

तो आओ मेरे देश बच्चे बचाओ
उन्हें चाहिये प्यार और वो किताबें
जिनपर कि मैकाले का शाप ना हो
ये सच है कि ईस्कूल हैं अब दुकानें
“गुरूर-ब्रम्हा” के बीते जमाने
शिक्षा बराबर हो अधिकार हो
किस लिये बाल-बच्चों में दीवार हो
बंद कमरे न दो, दो खुला आंगन
झकझोर दो, गर न चेते है शासन
बादल न होंगे न बरसेगा सावन
तो एक आग सागर जला कर सवेरा
लायेगी, पूरा यकीं गर बढ़ोगे
वरना जो कीचड़ से खुश हो, कमल है
पानी घटेगा तो केवल सड़ोगे
मोबाइलों को, एसी बसों को
किनारे करो, ऐसा माहौल दो
घर से बुनियाद पाये जो बच्चा बढ़े
विद्या के मंदिर में दीपक जलें

16.12.2007</poem>
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