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|रचनाकार =मुनव्वर राना
}}
[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}<poem>पैरों में मिरे दीद-ए-तर <ref>भीगी हुई आँख</ref> बांधे हुए हैं ज़ंजीर की सूरत मुझे घर बांधे हुए हैं  हर चेहरे में आता है नज़र एक ही चेहरा लगता है कोई मेरी नज़र बांधे हुए हैं
हर चेहरे में आता है नज़र एक ही चेहरा
लगता है कोई मेरी नज़र बांधे हुए हैं
बिछड़ेंगे तो मर जायेंगे हम दोनों बिछड़ कर
इक डोर में हमको यही डर बांधे हुए हैं
इक डोर में हमको यही डर बांधे हुए हैं  परवाज़ <ref>उड़ान</ref> की ताक़त भी नहीं बाक़ी है लेकिन सय्याद <ref>बहेलिया या शिकारी</ref> अभी तक मिरे पर बांधे हुए हैं  आँखें तो उसे घर से निकलने नहीं देतीं आंसू हैं कि सामाने-सफ़र बांधे हुए हैं
आँखें तो उसे घर से निकलने नहीं देतीं
आंसू हैं कि सामाने-सफ़र बांधे हुए हैं
हम हैं कि कभी ज़ब्त का दामन नहीं छोड़ा
 
दिल है कि धड़कने पर कमर बंधे हुए है
</poem> दीद-ए-तर=भीगी हुई आँख; परवाज़=उड़ान; सय्याद=बहेलिया या शिकारी{{KKMeaning}}
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