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बुलावा / परवीन शाकिर

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<poem>
मैंने सारी उम्र
किसी मंदिर में क़दम नहीं रक्खा
लेकिन जब से
तेरी दुआ में
मेरा नाम शरीक हुआ है
तेरे होंठो की जुम्बिश पर
मेरे अन्दर की दासी के उजले तन में
घंटियाँ बजती रहती हैं
</poem>
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