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Kavita Kosh से
{{KKRachna
|रचनाकार=उर्मिलेश
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आज है, कल हुई, हुई, न हुई
छांव हर पल हुई, हुई, न हुई
एक पहेली है ज़िंदगी अपनी
क्या पता हल हुई, हुई, न हुई
देह का फ़लसफ़ा बताता है
कल ये संदल हुई, हुई, न हुई
जो नदी तुझमें - मुझमें बह्ती है
उसमें कलकल हुई, हुई, न हुई
ये नुमाइश तो चार दिन की है
फिर ये हलचल हुई, हुई, न हुई
मानकर घास रौंद मत इसको
कल ये मखमल हुई, हुई, न हुई
जितना जी चाहे उतनी पी ले तू
फिर ये बोतल हुई, हुई, न हुई
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