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15:15, 13 नवम्बर 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सौदा
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<poem>
इस चश्मे-ख़ूँचकाँ का अहवाल क्या कहूँ मैं
गर ज़ख़्म है तो ये है, नासूर है तो ये है
लख़्ते-ज़िगर मिरा अब मिजगाँ पे आ रहा है
गर दार है तो ये है, मंसूर है तो ये है
आलम की अब ज़बाँ का दुख क्या कहूँ मैं यारो
गर नीश है तो ये है, ज़ंबूर है तो ये है
</poem>