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|रचनाकार=सौदा
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इस दिल के दे के लूँ दो जहाँ, ये कभू न हो
सौदा तो होवे तब न कि जब इसमें तू न हो
आईना-ए-वज़ूद-ओ-अदम में अगर तिरा
रू दरमियाँ न हो तो कहीं हमको रू न हो
झगड़ा तो हुस्नो-इश्क़ का चुकता है पल के बीच
गर महकमे में क़ाजी के तू रूबरू न हो
गुल की न तुख़्म मुर्गे-चमन कर सके तलाश
हम ख़ाम-फ़ितरतों से तिरी जुस्तजू न हो
</poem>