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हनीमून / परवीन शाकिर

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<poem>
सुर्ख़ अंगूर से छनी हुई ये सर्द हवा
जिसको क़तरा-क़तरा पी कर
मेरे तन की प्यासी शाख़ के सारे पीले फूल गुलाबी होने लगे हैं
सोच के पत्थर पे ऐसी हरियाली उग आई है
जैसे इनका और बारिश का बड़ा पुराना साथ रहा हो
हरियाली के सब्ज़ नशे में डूबी ख़ुश्बू
मेरी आँखें चूम रही है
ख़ुश्बू के बोसों से बोझल मेरी पलकें
ऐसे बंद हुई जाती हैं
जैसे सारी दुनिया इक गहरा नीला सय्याल है
जो पाताल से मुझको अपनी जानिब खींच रहा है
और मैं तन के पूरे सुख से
इस पाताल की पहनाई में
धीरे-धीरे डूब रही हूँ
</poem>
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