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ख़्वाब / परवीन शाकिर

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नर्म लहरों के छींटे उड़ाती हुई
बात बे-बात हँसती
अपने ख्वाबों ख़्वाबों के शहज़ादों का तज़किरा तज़्किरा<ref>चर्चा</ref> कर रही थीं
जो ख़ामोश थीं
उनकी आँखों में भी मुस्कराहट की तहरीर थी
उनके होंठों को भी अनकहे ख़्वाब का ज़ायका चूमता था
(आने वाले मौसमों के सभी पैरहन नीलमें हो चुके थे )
दूर साहिल पे बैठी हुई एक नन्ही -सी बच्ची हमारी हंसी हँसी और मौजों के आहंग<ref>संकल्प</ref> से बेख़बररेत से एक नन्हा घरौंदा बनाने में मसरूफ मसरूफ़<ref>व्यस्त</ref> थी
और मैं सोचती थी
खुदाया ख़ुदाया ये हम लड़कियाँ
कच्ची उम्र से ही ख़्वाब क्यूँ देखना चाहती हैं
ख़्वाब की हुक्मरानी में कितना तसलसुल<ref>निरंतरता</ref> रहा है
</poem>
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