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Kavita Kosh से
<poem>
यही कहा था मेरे हाथ में है आईना<ref>दर्पण</ref>
तो मुझपे टूट पड़ा सारा शहर नाबीना<ref>अन्धा </ref>
मेरे चिराग़ तो सूरज के हम-नसब<ref>बराबर वाला टक्कर का , टक्करका </ref> निकलेग़लत था अब के तेरी आँधियों का तख़्मीना<ref>अनुमान</ref>
ये ज़ख्म खाईयो सर पर ब-पासे-दस्ते-सुबूब<ref> हाथ के जाम को बचाते हुए </ref>
हमें भी हिज़्र का दुख है ना कुर्ब की ख़्वाहिश
सुनो कि भूल चुके हम भी अहदे- पारीना<ref>प्राचीन समय, पुराना वादा </ref>
उस एक शख़्स की सज-धज ग़ज़ब की थी ऐ `फ़राज'