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राजनीति / रामधारी सिंह "दिनकर"

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::(१०)
जब तक मंत्री रहे, मौन थे, किन्तु, पदच्युत होते ही
जोरों से टूटने लगे हैं भाई भ्रष्टाचारों पर।
::(११)
मंत्री के पावन पद की यह शान,
::नहीं दीखता दोष कहीं शासन में।
भूतपूर्व मंत्री की यह पहचान,
::कहता है, सरकार बहुत पापी है।
 
::(१२)
किसे सुनाते हो, शासन में पग-पग पर है पाप छिपा?
किया न क्यों प्रतिकार अघों का जब तुम सिंहासन पर थे?
 
::(१३)
छीन ली मंत्रीगीरी तो घूँस को भी रोक दो।
अब ’करप्शन’ किसलिए मैं ही न जब मालिक रहा?
 
::(१४)
जब तक है अधिकार, ढील मत दो पापों को,
सुनते हो मंत्रियों! नहीं तो लोग हँसेंगे,
कल को मंत्री के पद से हट जाने पर जब
भ्रष्टाचरणों के विरुद्ध तुम चिल्लाओगे।
 
::(१५)
प्रजातंत्र का वह जन असली मीत
::सदा टोकता रहता जो शासन को।
जनसत्ता का वह गाली संगीत
::जो विरोधियों के मुख से झरती है।
</poem>
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