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लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल,नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, आँसू के कण बरसाता चल।::सिसकियों और चीत्कारों से, ::जितना भी हो आकाश भरा,::कंकालों क हो ढेर, ::खप्परों से चाहे हो पटी धरा ।आशा के स्वर का भार, पवन को लिकिन, लेना ही होगा,जीवित सपनों के लिए मार्ग मुर्दों को देना ही होगा।::रंगो के सातों घट उँड़ेल, ::यह अँधियारी रँग जायेगी,::ऊषा को सत्य बनाने को ::जावक नभ पर छितराता चल।आदर्शों से आदर्श भिड़े, प्रग्या प्रग्या प्रज्ञा प्रज्ञा पर टूट रही।प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है, धरती की किस्मत फूट रही।::आवर्तों का है विषम जाल, ::निरुपाय बुद्धि चकराती है,::विज्ञान-यान पर चढी हुई ::सभ्यता डूबने जाती है।जब-जब मस्तिष्क जयी होता, संसार ज्ञान से चलता है,शीतलता की है राह हृदय, तू यह संवाद सुनाता चल।::सूरज है जग का बुझा-बुझा, ::चन्द्रमा मलिन-सा लगता है,::सब की कोशिश बेकार हुई, ::आलोक न इनका जगता है,इन मलिन ग्रहों के प्राणों में कोई नवीन आभा भर दे,जादूगर! अपने दर्पण पर घिसकर इनको ताजा कर दे।::दीपक के जलते प्राण, ::दिवाली तभी सुहावन होती है,::रोशनी जगत् को देने को ::अपनी अस्थियाँ जलाता चल।क्या उन्हें देख विस्मित होना, जो हैं अलमस्त बहारों में,फूलों को जो हैं गूँथ रहे सोने-चाँदी के तारों में ?में।::मानवता का तू विप्र, !::गन्ध-छाया का आदि पुजारी है,::वेदना-पुत्र! तू तो केवल ::जलने भर का अधिकारी है।
ले बड़ी खुशी से उठा, सरोवर में जो हँसता चाँद मिले,
दर्पण में रचकर फूल, मगर उस का भी मोल चुकाता चल।
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