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कबाड़ / जया जादवानी

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|रचनाकार= जया जादवानी
|संग्रह=उठाता है कोई एक मुट्ठी ऐश्वर्य / जया जादवानी
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<poem>
वे सब-कुछ ले जा रहे थे
खाली घर का निरर्थक सामान
उन्हें कोई उम्मीद भी नहीं थी
आएगा कोई बची हुई चीज़ों का हिसाब लेने
चाहेगा सहेज कर रखना दुर्लभ स्मृति को किसी
आलमारी के सबसे निचले खाने में
चाहे न देखे कभी खोलकर
उसके होने का एतबार
चमकेगा सदैव उसकी आँखों में
कुछ चीज़ें यूँ ही रह गईं कुछ नहीं की तरह
बहुत दिन उसी तरह बेकार पड़ी रहने के बाद
फेंक देगा कोई बुहारकर
हो सकता है घूरे में से बीन ले जाएँ बच्चे
बेच दें कबाड़ी को औने-पौने
घर उनके बदल जाएंगे इस तरह
अलग हो हमसे वे ख़ामोश
चली जाएंगी कहीं और
विलग होकर हम अनन्त से जैसे
एक दिन उन्हें स्वप्न आएगा हमारा
देखेंगी चकित आँखों से
पता नहीं कितनी जीवित रहेंगी वे हमारे भीतर
हम जीवित रहेंगे उनके भीतर
पर ऐसे ही...।
</poem>