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कन्यादान / ऋतुराज

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|रचनाकार=ॠतुराज
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कितना प्रामाणिक था उसका दुख
 
लड़की को दान में देते वक़्त
 
जैसे वही उसकी अंतिम पूंजी हो
 
लड़की अभी सयानी नहीं थी
 
अभी इतनी भोली सरल थी
 
कि उसे सुख का आभास होता था
 
लेकिन दुख बाँचना नहीं आता था
 
पाठिका थी वह धुंधले प्रकाश की
 
कुछ तुकों और लयबद्ध पंक्तियों की
 
माँ ने कहा पानी में झाँककर
 
अपने चेहरे में मत रीझाना
 
आग रोटियाँ सेंकने के लिए है
 
जलने के लिए नहीं
 
वस्त्र और आभूषण शब्दिक भ्रमों की तरह
 
बंधन हैं स्त्री-जीवन के
 
माँ ने कहा लड़की होना
 
पर लड़की जैसी मत दिखाई देना।
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