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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश गुप्त |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poem> आँख भर देखा कहाँ, …
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{{KKRachna
|रचनाकार=जगदीश गुप्त
|संग्रह=
}}
{{KKCatGeet}}
<poem>
आँख भर देखा कहाँ, आँख भर आई।
अटकी ही रही दीठ
वह हिमगिरी-भाल-पीठ
मेरे ही आँसू के झीने पट ओट छिपी,
देखता रहा बेबस, दी नहीं दिखाई।
आँख भर देखा नहीं, आँख भर आई।
पंक्ति-बद्ध देवदारु
रोमिल, शलथ, दीर्घ चारु
चंदन पर श्यामल कस्तूरी की गन्ध-सी
जलदों की छाया हिम शृंगों पर छाई।
आँख भर देखा कहाँ, आँख भर आई।
शिखरों के पार शिखर
बिंध कर दृग गए बिखर
घाटी के प्म्छी-सी गहरे मन में उतरी
बदरी-केदारमयी मरकत गहराई।
आँख भर देखा कहाँ, आँख भर आई।
</poem>
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|रचनाकार=जगदीश गुप्त
|संग्रह=
}}
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<poem>
आँख भर देखा कहाँ, आँख भर आई।
अटकी ही रही दीठ
वह हिमगिरी-भाल-पीठ
मेरे ही आँसू के झीने पट ओट छिपी,
देखता रहा बेबस, दी नहीं दिखाई।
आँख भर देखा नहीं, आँख भर आई।
पंक्ति-बद्ध देवदारु
रोमिल, शलथ, दीर्घ चारु
चंदन पर श्यामल कस्तूरी की गन्ध-सी
जलदों की छाया हिम शृंगों पर छाई।
आँख भर देखा कहाँ, आँख भर आई।
शिखरों के पार शिखर
बिंध कर दृग गए बिखर
घाटी के प्म्छी-सी गहरे मन में उतरी
बदरी-केदारमयी मरकत गहराई।
आँख भर देखा कहाँ, आँख भर आई।
</poem>