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Kavita Kosh से
मैना आई तो उससे भी उड़ने को माँगे चटुल पंख!
फिर आ निकली वन की चिड़िया तिनके चुनने, चुग्गा लेने,
’ले चलो मुझे भी उड़ा कहीं’ यों फूल लगा उससे कहने!
चिड़िया की चोंच बसन्ती थी, था फूल गुलाबी रंगभरा,
बस पल में दीखा चिड़िया के मुँह में वह डंठल हरा-भरा!
ऊपर था नीला आसमान, दीखी नीचे सोना धरती,
थल का बुलबुला फूल टूटा, पर मिट्टी इसमें क्या करती?
आ गिरा धरा पर फूल, मिला मिट्टी में, छिन में हुआ धूल!
जिस मिट्टी से जीवन पाया, था उस मिट्टी को गया भूल!
मिट्टी कहती--’मैं सबकुछ सहती रहती हूँ चुपचाप पड़ी,
हिम-आतप में गल और सूख पर नहीं आज तक गली सड़ी!’
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