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यहाँ की बरसात / नरेन्द्र शर्मा

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मन मारे मन-पंछी बैठा है समेट भीगी पाँखें!
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वह बरसाती रात शहर की! वह चौड़ी सड़कें गीली!
बिजली की रोशनी बिखरती थी जिनपर सोनापीली!
भरी भरन उतरी सिर पर से, कहाँ साइकिल चलती थी!
घर के द्वारे कीच-कांद थी, चप्पल चपल फिसलती थी!
प्यारी थी वह हुँमस धमस भी, खूब पसीने बहते थे!अब आई पुरवय्या, आया पानी, कहते रहते थे!बरसे राम बवे दुनिया--यों चिल्ला उठते थे लड़के,रेला आया, बादल गरजे, कड़क कड़क बिजली तड़पे!(कितनी प्यारी थीं बरसातें--हरे-हरे दिन, नीली रातें!रंग रँगीली साँझ सुहानी, धुली-धुलाई सुन्दर प्रातें!)आई है बरसात यहाँ भी--आज ऊझना, कल झर था!होते यों दिन-रात यहाँ, पर अंतर धरती-अंबर का!यहाँ नहीं अमराई प्यारी, यहाँ नहीं काली जामुन,है सूखी बरसात यहाँ की मोर उदासा गर्जन सुन!इन तारों के पार कहीं उड़ जाने को कहतीं आँखें,पर मन मारे बैठा मेरा मन-पंछी, भीगी पाँखें!
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