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02:19, 5 दिसम्बर 2009 {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रमा द्विवेदी}}
ज़िन्दगी के लंबे सफ़र में,<br>
कोई मनचाहा हमसफ़र मिल जाए।<br><br>
मौसम कोई भी हो,बंधन कैसे भी हों,<br>
लाख समझाने पर भी,<br>
मन कुछ दूर साथ-साथ,<br>
चलने के लिए कसमसाए.....।<br><br>
कुछ पल का ही साथ क्यों न सही,<br>
दिल खुशियों से उमड़-उमड़ आए,<br>
क्या दायित्वों के बोझ से कोई,<br>
अपनी क्षणिक खुशियों को छोड़ आए....।<br><br>
क्या इंसान का संबंधों के सिवा अपना अस्तित्व नहीं?,br>
एक क्षण भी अपनी खुशी से जीने का हक़ नहीं?<br>
दायित्वों की बलिवेदी पर,क्यों?<br>
अपनी छोटी-छोटी खुशियों की बलि चढाए.....।<br><br>
माना कि संबंधों के लिए जीना आदर्श है,मिसाल है,<br>
किन्तु एक प्रश्न मेरे ज़ेहन में उमड़ता है,पूछ्ता है,<br>
फिर इंसान स्वयं में क्या है?<br>
मेरे प्रश्न का उत्तर कोई तो बताए.....?<br><br>