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{{KKRachna
|रचनाकार= हसरत मोहानी
}}
[[category: ग़ज़ल]]
<poem>
ख़ू<ref >आदत</ref> समझ में नहीं आती तेरे दीवानों की
जिनको दामन की ख़बर है न गिरेबानों की

आँख वाले तेरी सूरत पे मिटे जाते हैं
शम‍अ़-महफ़िल की तरफ़ भीड़ है परवानों की

राज़े-ग़म सेहमें आगाह किया ख़ूब किया
कुछ निहायत<ref >हद</ref> ही नहीं आपके अहसानों की

आशिक़ों ही का जिगर है कि हैं ख़ुरसंदे-ज़फ़ा<ref >अकृपा पर भी प्रसन्न</ref>
काफ़िरों की है ये हिम्मत न मुसलमानों की

याद फिर ताज़ा हुई हाल से तेरे 'हसरत'
क़ैसो-फ़रहाद के भूले हुए अफ़सानों की

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</poem>